Wednesday, July 8, 2009

सवालों के घेरे में ईवीएम मशीन

By Himanshu Shekhar :

पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के शोर में कई अहम बातें दब कर रह गईं। ये ऐसी बातें हैं जिन पर एक लोकतांत्रिक समाज में बहस होनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर उनकी जांच भी होनी चाहिए। दिल्ली के पूर्व मुख्य सचिव और आईआईटी स्नातक ओमेश सहगल ने इलैक्टोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम के प्रोग्रामिंग पर सवालिया निशान लगा दिया है। उनका दावा है कि देश में प्रयोग किए जा रहे ईवीएम में एक खास कोड डाल देने भर से किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में हर पांचवां वोट चला जाता है। उन्होंने अपनी शिकायत चुनाव आयोग के समक्ष दर्ज करा दी है।

चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने भी यह कह दिया है कि इस शिकायत की जांच आयोग कर रहा है और इसकी जिम्मेवारी आयोग के ही एक अधिकारी को दी गई है। कहा तो यह भी जा रहा है जल्द ही आयोग सहगल को ईवीएम में कैसे छेड़छाड़ संभव है, इसे प्रमाणित करने के लिए बुला सकती है। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ईवीएम पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। वे तो यहां तक कह रहें है कि एक बार फिर से बैलेट पेपर के जरिए चुनाव करवाया जाना चाहिए। जब बात हर तरफ से उठ रही हो तो ऐसे मामले की पड़ताल बेहद जरूरी हो जाती है।

वैसे, ईवीएम पर इससे पहले भी सवाल खड़े किए गए हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद तमिलनाडु में पी.एम.के. के सर्वेसर्वा सीनियर रामदौस ने प्रेस कांफ्रेस करके कहा कि इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन के जरिए चुनाव में गड़बड़ी की गई। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम की प्रोग्रामिंग इस तरह से की गई कि किसी भी निशान पर बटन दबाने के बावजूद डीएमके के चुनाव चिह्न पर ही वोट पड़ रहे थे।

ऐसे ही आरोप पिछले साल मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के बाद भी सामने आए थे। वहां एक उम्मीदवार ने कहा था कि उनसे ईवीएम के जरिए वोट मैनेज करने के लिए पैसे मांगे गए। उस उम्मीदवार ने इसकी शिकायत राज्यपाल से भी की। उस शिकायत पर क्या कार्रवाई हुई, यह अभी तक पता नहीं चल पाया है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि उस शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

ऐसा नहीं है कि ईवीएम में व्याप्त खामियों के मामले पहली बार सामने आ रहे हैं। अब तक कई चुनावों में अलग-अलग राज्यों से ईवीएम के जरिए होने वाले मतदान में गड़बड़ी की शिकायतें आई हैं। वोटिंग के दौरान प्रशासन के द्वारा कई मतदान केंद्रों पर ईवीएम बदलने के मामले भी सामने आए हैं। इनमें से ज्यादातर मामलों में यह बात सामने आई है कि किसी भी चुनाव चिह्न पर बटन दबाने के बावजूद वोट किसी खास चुनाव चिह्न पर जा रहे थे। यानी उसी चुनाव चिह्न के सामने वाली बत्ती जल रही थी।

कंप्यूटर प्रोग्रामिंग करने वाले एक इंजीनियर ने बताया कि ईवीएम में तकनीकी छेड़छाड़ के जरिए यह तो किया ही जा सकता है कि बटन कोई भी दबाया जाए लेकिन वोट एक ही जगह पड़ेगा। इस इंजीनियर ने यह भी दावा किया कि अगर उसे कुछ घंटे के लिए ईवीएम दे दिया जाए तो वह ऐसा करके दिखा सकता है।

दुनिया के कई देशों के अनुभव से यह प्रमाणित हो गया है कि ईवीएम मतदान का बिल्कुल पाक साफ माध्यम नहीं है। आयरलैंड के उदाहरण के जरिए यह बात और ज्यादा साफ होगी। आयरलैंड में 2006 से ईवीएम के जरिए मतदान शुरू हुआ। ईवीएम के जरिए मतदान की व्यवस्था लागू करने के लिए वहां की सरकार ने तीन साल में पांच करोड़ यूरो से ज्यादा खर्च किए।

इस मद में सरकार की योजना और तीन करोड़ यूरो खर्च करने की थी। पर वहां के लोगों ने ईवीएम को खारिज कर दिया और आयरलैंड सरकार ने ईवीएम के जरिए मतदान करवाने की योजना को समाप्त कर दिया। यानी आयरलैंड में अब चुनाव पुराने तरीके से होंगे। वहां के लोगों का कहना था कि वोट डालते समय बस एक आवाज आती है और उनके वोट का कोई प्रामाणिक रिकार्ड नहीं रहता इसलिए इस व्यवस्था पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

कहना न होगा कि आयरलैंड के लोग भारत के लोगों के मुकाबले ज्यादा कंप्यूटर फ्रेंडली हैं और उन्हें पता है कि कंप्यूटर के साथ किस-किस स्तर पर गड़बड़ी की जा सकती है। इसलिए वहां के लोगों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। पर भारत में इस मामले में कंप्यूटर की चाल-ढाल को जानने वाले भी चुप हैं। वैसे ईवीएम का विरोध सिर्फ आयरलैंड में ही नहीं हुआ बल्कि और भी कई देशों में ईवीएम का विरोध जारी है। मिसाल के तौर पर जर्मनी को लिया जा सकता है।

वहां की सुप्रीम कोर्ट ने इसी मार्च में ईवीएम के जरिए वोटिंग करवाने को असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट ने कहा कि ईवीएम के जरिए वोट को रिकार्ड करने और वोटों की गणना की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी होने की वजह से आम लोगों का इस पर भरोसा नहीं है। इसलिए इसके जरिए वोटिंग करवाया जाना असंवैधानिक है।

जर्मनी में तकनीक के जानकारों ने यह प्रमाणित किया कि वहां वोटिंग के लिए इस्तेमाल किए जा रहे ईवीएम मोबाइल से भी कम सुरक्षित हैं। यानी उनसे बेहद आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती है। नीदरलैंड में भी ऐसा ही हुआ। वहां तो एक जनसंगठन ने बाकायदा ईवीएम के खिलाफ अभियान ही चला दिया। वहां के एक जनसंगठन के एक वीडियो तैयार किया। इस वीडियो में यह दिखाया गया कि किस तरह से और कितने समय में एक ईवीएम को हैक किया जा सकता है।

इस वीडियो से यह पता चला कि ईवीएम को पांच मिनट के अंदर हैक किया जा सकता है और यह बेहद आसान है। इस वीडियो को वहां के प्रमुख टेलीविजन चैनल पर प्रसारित कर दिया गया। यह घटना 2006 के अक्टूबर की है। इस वीडियो के प्रसारण के बाद वहां ईवीएम पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके अलावा और भी कई देशों में ईवीएम को लेकर विरोध के स्वर उठते रहे हैं।

इन तथ्यों से एक बात तो साफ है कि इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ बहुत आसानी से की जा सकती है। भारत में इससे छेड़छाड़ की संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है। पहली बात तो यह कि देश की राजनीति का चरित्र इस तरह का हो गया है कि आज हर दल को किसी भी कीमत पर चुनावी जीत चाहिए। इसलिए ईवीएम से छेड़छाड़ के जरिए अगर नेताओं को जीत की संभावना दिखती हो तो ऐसा करवाने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होगा। इस चुनाव में पी चिदंबरम समेत कुछ बड़े नेता हारते- हारते चुनाव जीत गए।

इससे एक सवाल तो उठता ही है कि कहीं यह ईवीएम का ही कमाल तो नहीं है? संयोग से चिदंबरम उसी राज्य यानी तमिलनाडु से चुनाव जीते हैं जहां के रामदौस ने ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है। बहरहाल, ईवीएम के जरिए होने वाले मतदान में कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता कि किसने किसे वोट दिया। बैलेट पेपर पर होने वाले मतदान में कम से कम पूरा रिकार्ड तो रहता है। इसलिए कई देशों में यह बात चल रही है कि ईवीएम के जरिए अगर मतदान करवाना ही है तो इसके जरिए दर्ज हो रहे मतदान का एक प्रिंटेड स्टेटमेंट भी हो जो रिकार्ड का काम करे और लोग इस पर भरोसा कर सकें।

कंप्यूटर में सुरक्षा के नाम पर चाहे जितने भी एंटी वायरस डाल लिये जाएं लेकिन हर रोज नए वायरस विकसित कर लिए जा रहे हैं और सुरक्षा कवच को भेद दिया जा रहा है। कंप्यूटर की दुनिया में लड़ाई कंप्यूटर की भाषा में ही लड़ी जाती है। इस लड़ाई के कई चेहरे हो सकते हैं। दुनिया की कई बड़ी कंपनियां हैकरों के हत्थे चढ़ चुकी हैं। यहां तक ही हैकरों ने न ही अमेरिका के पेंटागन को छोड़ा और न ही भारत के विदेश मंत्रालय को।

अब तो ऐसे भी वायरस विकसित हो गए हैं जिनके जरिए किसी कंप्यूटर का सारा डाटा मेल के जरिए वायरस बनाने वाले के पास पहुंच जाता है। इसलिए ईवीएम के वास्तविक डाटा को किसी खास प्रोगामिंग के जरिए अपनी इच्छा के अनुसार परिणाम देने वाले डाटा में परिवर्तित कर देना बहुत मुश्किल नहीं है।

अब अगर ऐसी संभावना है तो इस बात को भारत में आखिर गंभीरता से क्यों नहीं लिया जा रहा है? इस मसले पर मुख्य धारा की मीडिया भी पूरी तरह चुप्पी साधे हुए है। यह समझ से परे है कि आखिर ऐसा क्यों किया जा रहा है? आखिर एक लोकतांत्रिक समाज में एक अहम मसले पर बहस क्यों नहीं चल रही है? इन सवालों पर बातचीत और बहस जरूर होनी चाहिए। कांग्रेसी जीत के शोर में इन सवालों का दब जाना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सेहत के लिए सही नहीं है।

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